欧博百家乐कर्म पर संस्कृत श्लोक हिन्दी अर्थ सहित

Sanskrit shlokas contain profound wisdom on various life aspects, including karma. They frequently highlight the cause-and-effect principle, where our actions lead to consequences that circle back to us.

Sanskrit Shlok on Karma

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।श्रीमद् भगवद्गीता – 2.47

भावार्थ :

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में ही तेरा अधिकार है। कर्म के फल का अधिकार तुम्हारे पास नहीं है। इसलिए तू केवल केवल कर्म पर ध्यान दे उसके फल की चिंता न कर।

सर्वे कर्मवशा वयम्॥

भावार्थ :

सब कर्म के ही अधीन हैं।

अवश्यकरणीय च मा त्वां कालोऽत्यागदयम।

भावार्थ :

जो कर्म अवश्य करना है, उसे कर डालो, समय बीत ना जाये।

न श्वः श्वमुपासीत। को ही मनुष्यस्य श्वो वेद।

भावार्थ :

कल के भरोसे मत बैठो। कर्म करो, मनुष्य का कल किसे ज्ञात है?

अकर्मा दस्युः।

भावार्थ :

कर्महीन मनुष्य दुराचारी है।

अचोद्यमानानि यथा, पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते, तथा कर्म पुरा कृतम्।

भावार्थ :

जैसे फूल और फल बिना किसी प्रेरणा से स्वतः समय पर उग जाते हैं, और समय का अतिक्रमण नहीं करते, उसी प्रकार पहले किये हुए कर्म भी यथासमय ही अपने फल (अच्छे या बुरे) देते हैं।

अर्थात कर्मों का फल अनिवार्य रूप से मिलता है।

कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

भावार्थ :

अकर्म कि अपेक्षा कर्म श्रेष्ठ होता है।

दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत्।

भावार्थ :

दिनभर ऐसा कार्य करो जिससे रात में चैन की नींद आ सके।

ज्ञेय: स नित्यसंन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ् क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥

भावार्थ :

जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन! मनुष्य समस्त द्वन्दों से रहित होकर भवबंधन को पार कर पूर्णतया मुक्त्त हो जाता है।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय: ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥

भावार्थ :

जो भक्तिभाव से कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा, इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सभी को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कर्म नहीं बँधता।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य: |
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ||

भावार्थ :

जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी |
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ||

भावार्थ :

जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है, और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है, तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किए कराये सुखपूर्वक रहता है।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित: ||

भावार्थ :

जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित है और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।

भावार्थ :

हे धनंजय (अर्जुन)। कर्म न करने का आग्रह त्यागकर, यश-अपयश के विषय में समबुद्धि होकर योगयुक्त होकर, कर्म कर, (क्योंकि) समत्व को ही योग कहते हैं।

विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति।।

भावार्थ :

जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

भावार्थ :

कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मण:।।

भावार्थ :

तू शास्त्रों में बताए गए अपने धर्म के अनुसार कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।

भावार्थ :

श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करते हैं, सामान्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने लगते हैं। श्रेष्ठ पुरुष जिस कर्म को करता है, उसी को आदर्श मानकर लोग उसका अनुसरण करते हैं।

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।

भावार्थ :

ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसे ही करावे।

कर्मणामी भान्ति देवाः परत्र कर्मणैवेह प्लवते मातरिश्वा।
अहोरात्रे विदधत् कर्मणैव अतन्द्रितो नित्यमुदेति सूर्यः।।

भावार्थ :

कर्म से ही देवता चमक रहे हैं। कर्म से ही वायु बह रही है। सूर्य भी आलस्य से रहित कर्म करके नित्य उदय होकर दिन और रात का विधान कर रहा है।।

तथा नक्षत्राणि कर्मणामुत्र भान्ति रुद्रादित्या वसवोऽथापि विश्वे।।

भावार्थ :

रुद्र, आदित्य, वसु, विश्वेदेव और सारे नक्षत्र भी कर्म से ही प्रकाशित हो रहे हैं।

बह्मविद्यां ब्रह्मचर्यं क्रियां च निषेवमाणा ऋषयोऽमुत्रभान्ति।।

भावार्थ :

ऋषि भी वेदज्ञान, ब्रह्मचर्य और कर्म का पालन करके ही तेजस्वी बनते हैं।

प्रायशो हि कृतं कर्म नाफलं दृश्यते भुवि।
अकृत्वा च पुनर्मुःखं कर्म पश्येन्ममहाफलम।।

भावार्थ :

प्राय देखने में आता है कि इस संसार में किए गए कर्म का फल मिलता है। काम न करने से दुख ही मिलता है। कर्म महान फलदायक होता है।।

कर्मणा प्राप्यते स्वर्गः सुखं दुःखं च भारत ।।

भावार्थ :

भरतनंदन! मनुष्य अपने कर्मों से स्वर्ग, सुख और दुःख पाता है।।

न हि नाशोऽस्ति वार्ष्णेय कर्मणोः शुभपापयोः ।

भावार्थ :

वार्ष्णेय! किये गये अच्छे और बुरे कर्मों का नाश, उनका भोग(फल) मिले बिना नहीं होता।।

अवेक्षस्व यथा स्वैः स्वैः कर्मभिर्व्यापृतं जगत्।
तस्मात कर्मैव कर्त्तव्यं नास्ति सिद्धिरकर्मणः।।

भावार्थ :

देखिए सारा संसार अपने-अपने कार्यों में लगा हुआ है ।इसीलिए हमें भी अपने कर्तव्य कर्म करने चाहिए। काम न करने वाले को सफलता नहीं मिलती।

शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपपद्यते।।

भावार्थ :

राजेन्द्र! शुभ कर्म कल्याण के लिए ही होता है।

कर्मणा वर्धते धर्मो यथा धर्मस्तथैव सः।।

भावार्थ :

कर्म से ही धर्म बढ़ता है। जो जैसा धर्म अपनाता है, वह वैसा ही हो जाता है।।

कर्म चात्महितं कार्यं तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु ।
ग्रस्यतेऽकर्मशीलस्तु सदानथैरकिञ्न।।

भावार्थ :

जो अपने लिए हितकर कठोर या कोमल कर्म हो, उसे करना चाहिए। जो काम नहीं करता, वह निर्धन हो जाता है और उसे मुसीबतें घेर लेते हैं।।

यत् कृतं स्याच्छुभं कर्मं पापं वा यदि वाश्नुते।
तस्माच्छुभानि कर्माणि कुर्याद् वा बुद्धिकर्भिः।।

भावार्थ :

मनुष्य जो भी अच्छे-बुरे कर्म करता है। उनका फल उसे भोगना पड़ता है इसीलिए मन, बुद्धि और शरीर से सदा अच्छे कर्म करने चाहिए।।

नान्यः कर्तुः फलं राजन्नुपभुङ्क्ते कदाचन।।

भावार्थ :

कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के कर्मों का फल भी भोक्ता है।

किंचिद् दैवाद हठात् किंचिद् किंचिदेव स्वकर्मभिः।
प्राप्नुवन्ति नरा राजन्मा तेऽस्त्वन्या विचारणा।।

भावार्थ :

राजन! विवेकशील पुरुषों को कर्मों का कुछ फल प्रारब्धवश मिलता है। कुछ फल हठात प्राप्त होता है और कुछ कर्मों का फल अपने कर्मों से ही प्राप्त होता है।

कृतमन्वेति कर्तारं पुराकर्म दिजोत्तम।।

भावार्थ :

विप्रवर! पहले किए हुए कर्म का फल कर्म करने वाले को भोगना ही पड़ता है।

विषमांच दशां प्राप्तो देवान् गर्हति वै भृशम्।
आत्मनः कर्मदोषाणि न विजानात्यपण्डितः।

भावार्थ :

मूर्ख मनुष्य संकट में पड़ने पर देवताओं को खूब कोसता है ।किंतु यह नहीं समझता कि उसे अपने कर्मों का ही यह फल मिल रहा है।

शुभैः प्रयोगैर्देवत्वं व्यामिश्रेर्मानुषो भवेत्।
मोहनीयैर्वियोनीषु त्वधोगामी च किल्विषी।।

भावार्थ :

अच्छे कर्म करने से जीव को देव योनि मिलती है जीव अच्छे और बुरे कर्म करने से मनुष्य योनि में मोह में डालने वाले तामसिक कर्म करने से पशु पक्षी योनियों में तथा पाप कर्म करने से नरक में जाता है।

स चेन्निवृत्तबन्धस्तु विशुद्धश्चापि कर्मभिः।
तपोयोग सभारम्भकरुते द्विजसत्तम।।

भावार्थ :

विप्रवर बंधन के कारण बने कर्मों का भोग पूरा हो जाने पर और अच्छे कर्मों से मन और शरीर शुद्ध हो जाने पर मनुष्य तपस्या और योगाभ्यास शुरू कर देता है।

ध्रुवं न नाशोऽस्ति कृतस्य लोके।।

भावार्थ :

इस संसार में किए हुए कर्म का फल नष्ट नहीं होता।।

इह क्षेत्रे क्रियते पार्थ कार्यं न वैकिंचित क्रियते प्रेत्यकार्यम।।

भावार्थ :

पार्थ! इसी शरीर के रहते पाप- पुण्य कर्म किए जा सकते हैं मरने के बाद कोई कर्म नहीं किया जा सकता।

नूनं पूर्वकृतं कर्म सुधारमनुभूयते।।

भावार्थ :

सभी लोग अपने पहले किए गए कर्मों का फल अवश्य भोगते हैं।

शयानं चानुशेते हि तिष्ठन्तं चानुतिष्ठति।
अनुधावति धावन्तं कर्म पूर्वकृतं नरम्।।

भावार्थ :

मनुष्य का पहले किया हुआ कर्म उसके सोने के साथ ही सोता है उठने पर साथ ही उठता है और दौड़ने पर साथ ही दौड़ता है वह पीछा नहीं । छोड़ता।

यस्यां यस्यामवस्थायां यत् करोति शुभाशुभम्।।
तस्यां तस्यामवस्थायां तत्फलं समुपाश्नुते।।

भावार्थ :

मनुष्य जिस-जिस अवस्था में जो भी अच्छा – बुरा कर्म करता है उसी परिस्थिति में उसे अच्छे-बुरे कर्मों का फल मिलता है।

येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः।
तेन तेन शरीरेण तत्फलं समुपाश्नुते।।

भावार्थ :

प्राणी जिस जिस शरीर में जो जो कर्म करता है वह उसी शरीर से उस कर्म का फल भी भोगता है।

शुभाशुभफलं प्रेत्य लभते भूतसाक्षिकम्।
अतिरिच्येत यो यत्र तत्कर्ता लभते फलम्।।

भावार्थ :

मनुष्य के अच्छे और बुरे कर्म के साक्षी पंचमहाभूत होते हैं इन कर्मों का फल मृत्यु के बाद मिलता है अच्छे और बुरे कर्मों में जैसे कर्म अधिक होते हैं उनका फल पहले मिलता है।

न कर्मणा पितुः पुत्रः पिता वा पुत्रकर्मणा ।
मार्गेणान्येन गच्छन्ति बद्धाः सुकृत दुष्कृतैः।।

भावार्थ :

पिता के कर्म से पुत्र का और पुत्र के कर्म से पिता का कोई संबंध नहीं है । जीव अपने – अपने पाप – पुण्य कर्मों के बंधन में बंधे हुए अलग अलग रास्तों से अपने कर्मों के अनुसार जाते हैं।

अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि फलानि च।
स्वं कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुरा कृतम्।।

भावार्थ :

जैसे फूल और फल किसी की प्रेरणा के बिना ही उचित समय आने पर वृक्षों पर लग जाते हैं। वैसे ही पूर्व जन्म के कर्म भी अपने फल भुगतने के समय का उल्लंघन नहीं करते हैं । उचित समय आने पर उसका फल मिलता है।

आत्मना विहितं दुःखमात्मना विहितं सुखम्।
गर्भशय्यामुपादाय भुज्यते पौर्वदेहिकम्।।

भावार्थ :

दुःख और सुख अपने ही किए कर्मों का फल है । जीव गर्भ में आते ही अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगने लगता है।

यथा कर्म तथा लाभ इति शास्त्रनिदर्शनम्।।

भावार्थ :

शास्त्र का सिद्धांत है कि जैसा कर्म होता है वैसा ही फल मिलता है।

चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम।
कुरुते यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते।।

भावार्थ :

मनुष्य, आंख, मन, वाणी और हाथ-पैर आदि से जैसा काम करता है उसके अनुसार मनुष्य को फल मिलता है।

नायं परस्य सुकृतं दुष्कृतं चापिसेवते ।
करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते।।

भावार्थ :

जीवात्मा किसी दूसरे के पाप और पुण्य कर्मों का फल नहीं भोगता अपितु वह जैसे कर्म करता है उसके अनुसार उसे भोग मिलता है।

शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा।
कृतं फलति सर्वत्र नाकृतं भुज्यते क्वचित्।।

भावार्थ :

अच्छे कर्म करने से सुख और पाप कर्म करने से दुःख मिलता है। अपना किया हुआ कर्म सब जगह फल देता है। बिना किए हुए कर्मों का फल कभी नहीं भोगा जाता।

नाकृतं भुज्यते कर्म न कृतं नश्यते फलम्।।

भावार्थ :

बिना किए हुए कर्म का फल किसी को नहीं मिलता तथा किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना नष्ट नहीं होता है।

तथा शुभसमाचारो ह्यशुभानि विवर्जयेत।
शुभान्येव समादद्यात् या इच्छेद् भूतिमात्मनः।।

भावार्थ :

जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता हो वह अच्छे कर्म ही करें और बुरे कर्मों को छोड़ दें ऐसा करने से वह अच्छे कर्मों का फल प्राप्त करेगा।

पुण्यान् पुण्यकृतो यान्ति पापान् पापकृतो नराः

भावार्थ :

पुण्य कर्म करने वाले जीव पुण्यलोकों में और पाप कर्म करने वाले मनुष्य पापमय लोकों में जाते हैं।

शुभकृच्छभयोनीषु पापकृत् पापयोनीषु।।

भावार्थ :

अच्छे कर्म करने वाला प्राणी अच्छी योनियों में और पाप कर्म करने वाला प्राणी पापयोनियों में जन्म लेता है।

वीतरागा विमुच्यते पुरुषाः कर्मबन्धनैः।
कर्मणा मनसा वाचायेन हिंसन्ति किंचन।।

भावार्थ :

जो मनुष्य कर्म, मन और वचन से किसी की हिंसा नहीं करते और जिनका सभी तरह का लगाव समाप्त हो गया है ऐसे पुरुष कर्म बंधनों से छूट । जाते हैं।

तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मच्यते कर्मबनधनैः।

भावार्थ :

जिनके लिए शत्रु और प्रिय मित्र दोनों ही समान हैं ऐसे जितेंद्रिय पुरुष कर्मों के बंधन से छूट जाते हैं।

यादृशं कुरूते कर्म तादृशं फलमश्नुते ।
स्वकृतस्य फलं भुङ्क्ते नान्यस्तद् भोक्तुमर्हति ।।

भावार्थ :

प्राणी जैसा कर्म करता है उसे उस कर्म का वैसा ही फल मिलता है वह अपने कर्मों का फल अपने आप ही भोगता है उसके कर्मों का फल कोई दूसरा नहीं भोगता है।

सर्वदात्मा कर्मवशो नानाजातिष जायते।।

भावार्थ :

जीवात्मा सदैव अपने कर्मों के अधीन रहकर अनेकविध योनियों में जन्म लेती है।

कर्म कर्त्ता नरोऽभोक्ता सनास्ति दिवि वा भवि।।

भावार्थ :

स्वर्ग में या पृथ्वी पर ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसे अपने किए हुए कर्मों का फल न भोगना पड़ता हो।

न शक्यं कर्मचाभोक्तुं सदेवासुरमानुषैः।

भावार्थ :

देवता, असुर और मनुष्य कोई भी अपने कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता है।

यथा कर्म कृतं लोके तथैतानुपपद्यते।।

भावार्थ :

संसार में मनुष्य जैसा काम करता है उसे उसका वैसा ही फल मिलता है।

यस्य यद् विहितं वीर सोऽवश्यं तदुपाश्नुते।

भावार्थ :

जिस व्यक्ति का जैसा काम होता है उसे उस काम का फल अवश्य झुकना पड़ता है।

न नश्यति कृतं कर्म सदा पञ्चेन्द्रियैरिह।
ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा तथैव च।।

भावार्थ :

मनुष्य की पांचों इंद्रियों द्वारा किया गया कर्म नष्ट नहीं होता है। पांचों इंद्रियों और छटा मन ये सब उस कर्म के साक्षी होते हैं।

नास्तिकः पिशुनश्चैव कृतघ्नो दीर्घदोषकः ।
चत्वारः कर्मचाण्डाला जन्मतश्चापि पञ्चमः ॥

भावार्थ :

नास्तिक, निर्दय, कृतघ्नी, दीर्घद्वेषी, और अधर्मजन्य संतति – ये पाँचों कर्मचांडाल हैं।

वागुच्चारोत्सवं मात्रं तत्क्रियां कर्तुमक्षमाः ।
कलौ वेदान्तिनो फाल्गुने बालका इव ॥

भावार्थ :

लोग वाणी बोलने का आनंद उठाते हैं, पर उस मुताबिक क्रिया करने में समर्थ नहीं होते । कलियुग के वेदांती, फाल्गुन मास के बच्चों जैसे लगते हैं।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥

भावार्थ :

जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखते हैं, और कर्म में अकर्म को देखता हैं, वह इन्सान सभी मनुष्यों में बुद्धिमान है; एवं वह योगी सम्यक् कर्म करनेवाला

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥

भावार्थ :

कर्म का स्वरुप जानना चाहिए, अकर्म का और विकर्म का स्वरुप भी जानना चाहिए; क्यों कि कर्म की गति अति गहन है।

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

भावार्थ :

(जीवन में) सुख-दुःख किसी अन्य के दिये नहीं होते; कोई दूसरा मुजे सुख-दुःख देता है यह मानना व्यर्थ है । ‘मुजसे होता है’ यह मानना भी मिथ्याभिमान है । समस्त जीवन और सृष्टि स्वकर्म के सूत्र में बंधे हुए हैं।

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥

भावार्थ :

हे कौन्तेय! दोषयुक्त होते हुए भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिए; क्यों कि जैसे अग्नि धूएँ से आवृत्त होता है वैसे हि हर कर्म किसी न किसी दोष से युक्त होता है।

वैद्याः वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान् ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति ।
भूताभिषंग इति भूतविदो वदन्ति प्रारब्धकर्म बलवन्मुनयोः वदन्ति ॥

भावार्थ :

(पीडा होने पर) वैद्य कहते हैं वह कफ, पित्त और वायु का विकार है; ज्योतिषी कहते हैं वह ग्रहों की पीडा है; भूवा (बाबा) कहता है भूत का संचार हुआ है, पर ऋषि-मुनि कहते हैं प्रारब्ध कर्म बलवान है (और उसी का यह फल है)।

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥

भावार्थ :

जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा, और सामर्थ्य को ध्यान में लिये बगैर, केवल अज्ञान की वजह से किया जाता है, वह तामसी कहा गया है।

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥

भावार्थ :

जो कर्म बहत परिश्रम उठाकर किया जाता है, और उपर से भोगेच्छा से या अहंकार से किया जाता है, वह कर्म राजसी कहा गया है।

अपहाय निजं कर्म कृष्णकृष्णोति वादिनः ।
ते हरेर्दृषिनः पापाः धर्मार्थ जन्म यध्धरेः ॥

भावार्थ :

जो लोग अपना कर्म छोडकर केवल कृष्ण कृष्ण बोलते रहते हैं, वे हरि के द्वेषी हैं ।

केचित् कुर्वन्ति कर्माणि कामरहतचेतसः ।
त्यजन्तः प्रकृयिदैवीर्यथाहं लोकसंग्रहम् ॥

भावार्थ :

जगत में विरल हि लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान की माया से निर्मित विषयसंबंधी वासनाओं का त्याग करके मेरे समान केवल लोकसंग्रह के लिए कर्म करते रहेते हैं।

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥

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2025-11-07 01:58 点击量:3